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Thursday, May 1, 2014

dohe


काव्य सलिला:
संजीव
*
कल तक थे साथ
आज जो भी साथ नहीं हैं
हम एक दिया तो
उनकी याद में जलायें मीत
सर काट शत्रु ले गए
जिनके नमन उन्हें
हँसते समय दो अश्रु
उन्हें भी चढ़ाएं मीत.
जो लुट गयी
उस अस्मिता के पोंछ ले आँसू
जो गिर गया उठा लें
गले से लगाएं मीत.
कुटिया में अँधेरा न हो
यह सोच लें पहले
झालर के पहले
दीप में बाती जलाएं मीत.



सामयिक मुक्तक:
संजीव
*
प्रश्नों में ही उत्तर, बाहर कहीं खोजने क्यों जाएँ ?
बिके हुए जो धर्म-विरोधी, स्वार्थों की जय-जय गाएँ
श्रेष्ठ मूल्य-कर्तव्य धर्म है, सदा धर्म-सापेक्ष रहें
वहीं धर्म-निरपेक्ष न जो निस्वार्थ तनिक भी रह पाएँ
*
मूल्य सनातन जिसे न सोहे, उसे स्वदेशी लगते गैर
पूज विदेशी-पैर उसी से रहा चाहता अपनी खैर
पहले हुए गुलाम, दुबारा होंगे अगर न चेते हम
जयचंदों से मुक्त न हो पाए अब तक है इतना गम
*
खुद को ग्यानी समझ अन्य को बच्चा नादां मान रहे
धर्म न खुद का जानें लेकिन रार धर्म से ठान रहे
राजनीति स्वार्थों की चेरी इसकी हो या उसकी हो
सृजन-सिपाही व्यर्थ विवाद न करें तनिक यह ध्यान रहे
*
जिन्हें दंभ ज्ञानी होने का, ओढ़ें छद्म नम्रता जो
मठाधीश की तरह आचरण, चाहे सत्य उपेक्षित हो
ऐसे ही संसद में बैठे जन-प्रतिनिधि का स्वांग धरे-
करतूतों को भारत माता देख रही है लज्जित हो
*
रूपया नीचे गिरता जाता, सत्ताधारी हर्षित हैं
जो विपक्ष में भाषण देकर खुद पर होते गर्वित हैं
बोरा भर रूपया ले जाएँ, मुट्ठी भर दाना लायें -
कह नादां विरोधकर्ता को, दाना खुद को भरमायें
*
होगा कौन प्रधान फ़िक्र यह, फ़िक्र देश की जो भूले
वहम अहम् का पाले कहते गगन उठाये हैं लूले
धृतराष्ट्री शासक आमंत्रित करता 'सलिल' महाभारत-
कृष्ण युद्ध आयोजित करते असत मिटे, बच रहता सत

दोहा सलिला:
गतागत
सलिल
*
गर्व न जिनको विगत पर, जिन्हें आज पर शर्म।
बदकिस्मत हैं वे सभी, ज्ञात न जीवन मर्म।।
*
विगत आज की प्रेरणा, बनकर करे सुधार।
कर्म-कुंडली आज की, भावी का आधार।।
*
गत-आगत दो तीर हैं, आज सलिल की धार।
भाग्य नाव खेत मनुज, थाम कर्म-पतवार।।
*
कौन कहे क्या 'सलिल' मत, करना इसकी फ़िक्र।
श्रम-कोशिश कर अनवरत, समय करगा ज़िक्र।।
*
जसे मूल पर शर्म है, वह सचमुच नादान।
तार नहीं सकते उसे, नर क्या खुद भगवान।।
*
दीप्ति भोर की ग्रहण कर, शशि बन दमका रात।
फ़िक्र न कर वंदन करे, तेरा पुलक प्रभात।।
*
भला भले में देखते, हैं परदेशी विज्ञ।
बुरा भेल में लिखते, हाय स्वदेशी अज्ञ।।

भाषा बोलें कोई भी, किन्तु बोलिए शुद्ध.
दिल से दिल तक जा सके, बनकर प्रेम प्रबुद्ध..
*
मौसी-चाची ले नहीं, सकतीं माँ का स्थान.
सिर-आँखों पर बिठा पर, उनको माँ मत मान..
*
ज्ञान गगन में सोहाती, हिंदी बनकर सूर्य.
जनहित के संघर्ष में, है रणभेरी तूर्य..
*
हिंदी सजती भाल पे, भारत माँ के भव्य.
गौरव गाथा राष्ट्र की, जनवाणी यह दिव्य..
*
हिंदी भाषा-व्याकरण, है सटीक अरु शुद्ध.
कर सटीक अभिव्यक्तियाँ, पुजते रहे प्रबुद्ध..
*
हिंदी सबके मन बसी, राजा प्रजा फकीर.
केशव देव रहीम घन, तुलसी सूर कबीर..
*

हिंदी प्रातः श्लोक है, दोपहरी में गीत.
संध्या वंदन-प्रार्थना, रात्रि प्रिया की प्रीत..
**************
संस्कृत, पाली, प्राकृत, हिंदी उर्दू पाँच.
भाषा-बोली अन्य हैं, स्नेहिल बहने साँच..
*
सब भाषाएँ-बोलियाँ, सरस्वती के रूप.
स्नेह् पले, साहित्य हो, सार्थक सरस अनूप..
*
भाषा-बोली श्रेष्ठ हर, त्याज्य न कोई हेय.
सबसे सबको स्नेह ही, हो जीवन का ध्येय..
*
उपवन में कलरव करें, पंछी नित्य अनेक.
भाषाएँ हैं अलग पर, पलता स्नेह-विवेक..
*
भाषा बोलें कोई भी, किन्तु बोलिए शुद्ध.
दिल से दिल तक जा सके, बनकर प्रेम प्रबुद्ध


बुन्देली मुक्तिका :
काय रिसा रए
संजीव
*
काय रिसा रए कछु तो बोलो
दिल की बंद किवरिया खोलो

कबहुँ न लौटे गोली-बोली
कओ बाद में पैले तोलो

ढाई आखर की चादर खों
अँखियन के पानी सें धो लो

मिहनत धागा, कोसिस मोती
हार सफलता का मिल पो लो

तनकउ बोझा रए न दिल पे
मुस्काबे के पैले रो लो
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Saturday, October 29, 2011

टैगोर _gulzar

एक देहाती सर पे गुड की भेली बांधे,
लम्बे- चौडे एक मैदा से गुज़र रहा था
गुड की खुशबु सुनके भिन-भिन करती
एक छतरी सर पे मंडलाती थी
धूप चढ़ती और सूरज की गर्मी पहुची तो
गुड की भेली बहने लगी

मासूम देहाती हैरा था
माथे से मीठे-मीठे कतरे गिरते थे
और वो जीभ से चाट रहा था!

मै देहाती.........
मेरे सर पर ये टैगोर की कविता की भेली किसने रख दी!